दैनिक हिन्दुस्तान में एक अच्छे पद पर कार्यरत श्री विजय किशोर मानव ने जब यह पंक्तियाँ सुनायीं थीं, तब शायद वे कानपुर स्थित अपने गांव- जंवार की कोई कहानी सुना रहे थे। उनकी यह बात कहे हुए बीस साल होने को हैं, लेकिन मुखियाओं का कुर्ता रेशम का ही है, और लोगों ने भले ही टाट पहनना बंद कर दिया हो, दिन भर इतने टीमटाम फैले रहते हैं कि टुटही-अँधेरी सड़कों, आधे दबे रास्तों, लोफरई और बर्बरता वाले समय में मानसिक रूप से पहना हुआ टाट भी फ़ट गया है। रायबरेली मग्न है, न कहीं कायदे से टहलने की जगहें, न कहीं कोई लाइब्रेरी या म्यूजियम। इवेंट टू इवेंट की चैतन्यता और गाल-बजाने वाले लफ्फाजों के बीच, जैसा कि कमलेश्वर ने लिखा था, ‘बंद कमरे में दम घुटता है, खिड़कियां खोलता हूँ तो जहरीली हवा आती है।’ क्या है न मुखिया (पदधारी या लोलुप) अक्सर रेशम ही खोजते हैं, और तो टाट पहनते-पहनते इतने घिस चुके हैं कि टालना और इग्नोर/अनदेखी अपनी नियति मान चुके हैं।
बहरहाल, अज्ञेय के हिसाब से ‘मौन भी अभिव्यंजना है..’ इसलिए इस बार कम ही लिखा है….