शहर के सबसे पुराने मोहल्लों में एक सत्यनगर का विकास बेतरतीब ढंग से हुआ है। गलियाँ पटरियों में तब्दील हो चुकी हैं, और गाड़ियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। इस स्थिति में वैसे भी सामान्य आवागमन में दिक्कत होती है और जब आने-जाने वाले दूसरों के घर के सामने गाड़ियाँ खड़ी कर चले जाते हैं तो समस्या और बढ़ जाती है। कुछ निवासी इस बात का विरोध करते हैं तो यह तर्क दिया जाता है कि बस दो मिनट में जा रहे हैं।जब मोहल्ले का विकास हो रहा था और उस समय इस बात का ध्यान नहीं दिया गया कि भविष्य में आवगमन की समस्या हो सकती है तो अब उसका स्पष्टीकरण ‘बस दो मिनट में जा रहे हैं’ में तब्दील हो रहा है।
हालात ऐसे हैं कि सामान्य दिनों में यहाँ एम्बुलेंस या अग्निशमन वाहन नहीं आ सकते। गलत ढंग से गाड़ियों के खड़े रहने पर क्या स्थिति होती है, वह आने-जाने वालों के अनुभवों के आधार पर लिखा जा सकता है।
यह एक तथ्य है कि पुलिस-प्रशसन किसी के घर का रास्ता रोककर गाडी खड़ी करने पर कार्यवाही कर सकने के सक्षम है, लेकिन ऐसी आदतें यह सवाल भी उठाती हैं कि क्या समाज केवल इस बात से आत्ममुग्ध है कि स्वयं का काम चल जाए, बाकी क्या करना? या, क्या विवाद करते रहने से कुछ लोग स्वयं को बड़ा महसूस करते हैं? या यह कि शिक्षा और रोजगार के तमाम अवसरों के बीच हम एक बर्बर समाज में जी रहे हैं?