रायबरेली गजब शहर है। यहाँ लोगों की पोलिटिकल लिटरेसी काफी ज्यादा है, माने राजनीति पर समझ, लेकिन विकास के तमाम इंडीकेटर्स पर यह जिला अभी पिछड़े से विकासशील की श्रेणी में ही कहा जायेगा। थोड़े परिवर्तन, रंग-रोगन वापस दिखाई देने लगे हैं, लेकिन वह गाड़ी की डेंटिंग-पेंटिंग जैसे ही लगते हैं। जनपद से होकर कई राष्ट्रीय और राजकीय राजमार्ग गुजरते हैं , जिनको संलग्न नक़्शे से समझा जा सकता है (यह सम्भव है कि इसमें कुछ बदलाव हुए हों, लेकिन कमोबेश इसे एक आधार माना जा सकता है) ।
अब यथास्थिति पर नज़र डालते हैं। लखनऊ-प्रयागराज मार्ग के अलावा ज्यादातर मार्गों पर शहर छोड़ते-छोड़ते रोडलाइट्स भी छूट जातीं हैं, मतलब नहीं मिलती हैं। तर्क शायद यह दिया जा सकता है कि इन मार्गों पर अभी यह या वह काम होना बाकी है, उसके बाद लाइट्स लगेंगी। लेकिन इस दौरान आने-जाने में कितनी दिक्कतें होती रहेंगी, यह सोचने वाली बात है। अब जरा रोडलाइट्स से संबंधित कुछ नियमों को समझ लेते हैं।
भारत में राष्ट्रीय राजमार्ग भारतीय मानक ब्यूरो (BIS) द्वारा निर्धारित दिशा-निर्देशों का पालन करते हैं, जो IS 1944: सार्वजनिक मार्गों पर प्रकाश व्यवस्था के लिए आचार संहिता में दिए गए हैं। इस संहिता को विभिन्न भागों में विभाजित किया गया है, जिसमें राष्ट्रीय राजमार्गों से संबंधित विशिष्ट खंड इस प्रकार हैं:
a) IS 1944-1 और 2 (1970): इसमें मुख्य और द्वितीयक सड़कों (समूह A) के लिए प्रकाश व्यवस्था शामिल है। यह इस तरह के सिद्धांतों पर जोर देता है:
i) ड्राइवरों को हेडलाइट की आवश्यकता के बिना स्पष्ट दृश्यता होनी चाहिए।
ii) प्रकाश व्यवस्था निरंतर और एक समान दिखाई देनी चाहिए, जिसमें मोड़, जंक्शन और पुल जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए।
iii) साइनेज और अन्य विशेषताएं बिना चकाचौंध के स्पष्ट होनी चाहिए।
b) IS 1944-7 (1981): यह भाग विशेष आवश्यकताओं (समूह F) वाली सड़कों के लिए प्रकाश व्यवस्था पर केंद्रित है, जिसमें विशिष्ट विशेषताओं वाले कुछ राष्ट्रीय राजमार्ग शामिल हो सकते हैं। ये मानक निम्नलिखित कारकों के आधार पर प्रकाश डिजाइन के लिए एक रूपरेखा स्थापित करते हैं:
i) यातायात की मात्रा: भारी यातायात वाले राजमार्गों को आमतौर पर कम यातायात घनत्व वाले राजमार्गों की तुलना में उच्च रोशनी के स्तर की आवश्यकता होती है
ii) सड़क की ज्यामिति: मोड़, जंक्शन और फ्लाईओवर अक्सर बेहतर दृश्यता के लिए अतिरिक्त प्रकाश व्यवस्था की आवश्यकता होती है
iii) आसपास का वातावरण: निर्मित क्षेत्रों, कारखानों या खुली जगहों की उपस्थिति प्रकाश डिजाइन विकल्पों को प्रभावित कर सकती है
c) स्ट्रीट लाइटिंग के लिए मुख्य विचार:
i) रोशनी का स्तर: मानक राष्ट्रीय राजमार्गों की विभिन्न श्रेणियों के लिए न्यूनतम रोशनी के स्तर को निर्दिष्ट करते हैं। इन स्तरों को लक्स (प्रति वर्ग मीटर लुमेन) में मापा जाता है।
ii) एकरूपता: चमक में अचानक बदलाव से बचने के लिए पूरे राजमार्ग की लंबाई में प्रकाश व्यवस्था एक समान होनी चाहिए जो चालक की दृष्टि को प्रभावित कर सकती है।
iii) चकाचौंध नियंत्रण: चालक के आराम और सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए प्रकाश डिजाइन को ल्यूमिनेयर से चमक को कम करना चाहिए।
iv) स्पेसिंग और माउंटिंग ऊंचाई: मानक इष्टतम रोशनी और एकरूपता प्राप्त करने के लिए प्रकाश पोल की स्पेसिंग और माउंटिंग ऊंचाई के लिए सिफारिशें प्रदान करते हैं।
v) ऊर्जा दक्षता: हालांकि स्पष्ट रूप से अनिवार्य नहीं है, लेकिन राष्ट्रीय राजमार्गों पर एलईडी फिक्स्चर जैसे ऊर्जा-कुशल प्रकाश समाधानों का उपयोग करने पर जोर बढ़ रहा है।
हालांकि यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि ये सामान्य दिशानिर्देश हैं। एनएच पर प्रकाश व्यवस्था के अंतिम डिजाइन और कार्यान्वयन का निर्धारण इंजीनियरों द्वारा प्रत्येक खंड की विशिष्ट विशेषताओं, स्वीकृत विस्तृत परियोजना रिपोर्ट और रियायत समझौते पर विचार करके किया जाता है।
कवरेज की सीमा:
वर्तमान में, भारत में सभी राष्ट्रीय राजमार्गों पर स्ट्रीट लाइटिंग नहीं है। यह मुख्य रूप से खराब नियोजन, अनियंत्रित रिबन विकास, बजटीय बाधाओं और यातायात की मात्रा और सुरक्षा चिंताओं के आधार पर प्राथमिकता के कारण है। परिणामस्वरूप, मुख्य रूप से उच्च-यातायात खंडों, विशेष रूप से चार-लेन और छह-लेन राजमार्गों पर ध्यान केंद्रित किया जाता है। इनमें प्रमुख शहरों, औद्योगिक गलियारों और महत्वपूर्ण जंक्शनों के पास के क्षेत्र शामिल हैं।
कई राष्ट्रीय राजमार्गों, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में दो-लेन वाले राजमार्गों पर सीमित या कोई स्ट्रीट लाइटिंग नहीं है। इससे रात के समय दृश्यता और ड्राइवरों की सुरक्षा पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ सकता है।
लाइटिंग के निर्णयों को प्रभावित करने वाले कारक:
a) ट्रैफ़िक वॉल्यूम: ज़्यादा ट्रैफ़िक वॉल्यूम स्ट्रीट लाइटिंग लगाने के निर्णय को प्रभावित करने वाला एक प्रमुख कारक है। सुरक्षा कारणों से ज़्यादा ट्रैफ़िक वाले राजमार्गों को प्राथमिकता दी जाती है।
b) दुर्घटना दर: दुर्घटना-प्रवण स्थानों को अक्सर दृश्यता बढ़ाने और संभावित रूप से दुर्घटनाओं को कम करने के लिए बेहतर लाइटिंग इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए लक्षित किया जाता है।
c) इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट: नई हाईवे निर्माण परियोजनाओं में आमतौर पर उनके डिज़ाइन में स्ट्रीट लाइटिंग के प्रावधान शामिल होते हैं।
d) बजटीय बाधाएँ: NH रखरखाव के लिए आवंटित सीमित संसाधन सभी हिस्सों में स्ट्रीट लाइटिंग के विस्तार को प्रतिबंधित कर सकते हैं।
सवाल कुछ नियमों से सम्बंधित हैं और कुछ व्यावहारिक, मसलन क्या जब तक काम पूरा नहीं हो जाता, तब तक सड़कें अंधेरे में रहेंगी? और क्या तब तक राहगीरों को अपनी गाड़ी की हेडलाइटों या सड़क किनारे बने दुकानों-मकानों में टिमटिमाते बल्बों के सहारे ही आना-जाना पड़ेगा? क्या रायबरेली-कानपुर मार्ग, जहाँ शहर से बीस-बाइस किलोमीटर की दूरी पर टोल देना पड़ता है, इस श्रेणी में नहीं आता है? या रायबरेली-महराजगंज रोड, रायबरेली-जायस रोड को प्राथमिकता किसी बड़े आयोजन प्रयोजन या बढ़ती सड़क दुर्घटनाओं के बाद ही दी जाएगी ? या यह कि सड़क किनारे लगे साइन अभी हर जगह नहीं लगे हैं? भारत में सरकारी काम की गति को धीमा माना जैसे एक स्थाई भाव ही है, लेकिन बढ़ी हुई राजनीतिक जागरूकता और विकास के मुद्दों की समझ के बीच सड़क पर रौशनी के लिए लगने वाली लाइटों का न होना सोचनीय विषय है।