(फोटो- जनसुनवाई पोर्टल से)
इधर पिछले कुछ समय से एक अजीब सा ट्रेंड देखने को मिल रहा है। सरकारी कर्मचारी प्रदेश या केंद्र सरकार के प्रति नकारात्मक भाव बनाये हुए हैं, जिसके कई कारण हो सकते हैं। बातचीत में जो कारण पता चला है वह यह कि अब अधिकारी-कर्मचारियों पर काम का दबाव बढ़ गया है और कई विभागों में कॉर्पोरेट स्टाइल में कार्यशैली बनती जा रही है। जिस प्रदेश में सरकारी कर्मचारियों को लेकर यह धारणा बनी हो कि वे काम नहीं करते क्योंकि उनकी नौकरियां सुरक्षित है, वहाँ समय से कार्यालय पहुँचना और कई स्तरों पर रिपोर्टिंग करना निश्चय ही एक अच्छा संकेत माना जाना चाहिए। जनसुनवाई ऐप भी इस दिशा में बनाया गया एक ऐसा माध्यम है जहाँ जनता सीधे अपनी शिकायतें सरकारी विभागों को लिखकर निस्तारण की उम्मीद कर सकती है।
सचाई लेकिन थोड़ा अलग है। जनसुनवाई ऐप पर डालीं गयी शिकायतों को एक निश्चित समयसीमा में निस्तारित करना होता है। विभाग का कोई कर्मचारी शिकायतकर्ता को फोन करके पूरी स्थिति समझता है और अपनी बात रखता है, और उसके बाद पोर्टल पर विभाग अपनी रिपोर्ट लगा देता है। विभाग द्वारा रिपोर्ट लगाने के कुछ दिनों के भोतर मुख्यमंत्री कार्यालय से सम्बद्ध जनसुनवाई कार्यालय से शिकायतकर्ता को एक फोन कर पूछा जाता है कि वह संतुष्ट है या असंतुष्ट, इसके पीछे की सरकारी सोच यह है कि शिकायतकर्ता की संतुष्टि या असंतुष्टि विभाग की कार्यशैली को उजागर कर देगी।
कई बार ऐसा देखने को मिला है कि छोटे-छोटे कामो को भी कभी बजट की अनुपलब्धता या कभी कोई तकनीकी गैप बताकर या तो टाल दिया जाता है या फिर मना कर दिया जाता है। इसमें एक कारण उस शिकायत का उक्त विभाग से सम्बंधित न होना भी दिया जाता है। कुछ साल पहले तक वह शिकायत दूसरे विभाग को प्रेषित कर दी जाती थी, लेकिन अब यह जिम्मेदारी शिकायतकर्ता पर डाल दी गयी है।
लालगंज थाना क्षेत्र स्थित ऐहार से नरपतगंज को जोड़ते हुए दरीबा तक की सड़क की मरम्मत का मेरा एक शिकायती प्रार्थनापत्र एक कार्यालय पहुंचा। कुछ दिनों में विभाग के एक कर्मचारी ने मुझे फोन पर यह बताया कि उस मार्ग के कुछ हिस्से ही उनके विभाग से सम्बंधित हैं, इसलिए विभाग केवल उन्ही का पुनर्निर्माण या मरम्मत करवा सकता है। विभाग के कार्यक्षेत्र में आने वाली सड़क के बारे में योजना की जानकारी मुझे दी गयी। उसके बाद उक्त कर्मचारी ने मुझसे यह आग्रह किया कि उनकी रिपोर्ट के फीडबैक में मैं अपनी संतुष्टि जता दूँ, क्योंकि शिकायतकर्ता की असंतुष्टि से उन्हें समस्या हो सकती है। चूँकि बातचीत का तरीका बहुत शालीन था , मैंने उनकी बात मान ली। मैं कुछ दिनों के बाद रायबरेली वापस आया तो उनके विभाग के कार्यक्षेत्र को और समझने के लिए उनसे मिलने का एक मेसेज भेजा। मेसेज भेजने पर पता चला कि महोदय ने मेरा नंबर ब्लॉक कर दिया है। चलिए ठीक है, यह उनकी निजता /प्राइवेसी का सवाल है कि वे किससे बात करना चाहते हैं या किससे नहीं, लेकिन क्या विभाग उस मार्ग पर अपने कार्यक्षेत्र की सड़कों को ठीक करवाया पाया? इसका जवाब ‘नहीं’ और ‘असंतोषजनक’ ही है। कहानी विभाग के काम को लेकर है किसी के निजी व्यवहार पर नहीं।
दूसरा वाक़या नरपतगंज की पुलिया का है जिसे एक दूसरे विभाग द्वारा तय समयसीमा के भीतर संतोषजनक ढंग से बना दिया गया। अब वहाँ की स्थिति है कि एक पटरी की सिंगल रोड ऊबड़खाबड़ है और बीच में एक बढ़िया पुलिया बनी हुई है। ऐहार से दरीबा तक कहीं कोई स्ट्रीटलाइट नहीं है, और उस रास्ते पर सूर्यास्त के बाद अपने रिस्क पर ही चला जा सकता है।
एक वाक़या और है जो जनसुनवाई की कहानी में अहम् लगता है। शहर के प्रमुख इंटेरसेक्शन्स (तिराहों और चौराहों) पर ट्रैफिक लाइटें लगवाने का प्रार्थनापत्र कोतवाली सदर पहुँच गया। वहाँ से लगाई गयी रिपोर्ट में लिखा गया कि “आवेदक को हिदायत की गई.. “। उसके बाद यह लिखा गया कि उनके स्तर से यह करवाना संभव नहीं है। अभी तक मैं यह समझ पाने में अक्षम हूँ कि हिदायत शब्द का प्रयोग क्यों किया गया ?
प्रदेश के निवासियों को अपने आसपास के विकास का भागीदार बनाने की पहल लोकतंत्र को मजबूत करने का एक प्रयास है। इसमें अभी काफी खामियां हैं और जवाबदेही को सरकारी विभागों के बहुत से कर्मचारियों को अतिरिक्त जिम्मेदारी के रूप में देखा जा रहा है। लोकतंत्र की एक खासियत है, यह अपनी खामियों को समझते हुए ही विकसित होता है, इसलिए प्रयास किये जाने जरुरी हैं। जनसुनवाई से सम्बंधित ऐसे और भी मामले सामने आएं हैं, जिनपर आगे चर्चा की जाती रहेगी।