कभी अपने देश की गलतियों के लिए भारत से माफ़ी मांगने वाले जस्टिन ट्रुडो ने भारत के प्रति अपना रुख ऐसा बदला है कि न केवल यहाँ से कनाडा के संबंधो में दरार दिखाई देती है, बल्कि धीरे-धीरे यह भी सबकी जुबान पर आने लगा है कि यह सब ट्रुडो ने अपनी सरकार बचाने के फेर में किया है। माफ़ी बीसवीं सदी की एक घटना के लिए मांगी गयी थी, और जिस हिसाब से तेवर बदले हैं उसके अनुसार अब यह कहना गलत नहीं होगा की वह माफ़ी भी भारतीय समुदाय (हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई) की संवेदनाओं को भुनाना था। ट्रुडो की अपने देश में लोकप्रियता पहले से काफी घटी है, और वर्तमान में उनकी सरकार सिख समुदाय के समर्थन से चल रही है। यह भी लिखा जाता है कि बहुत से सिख कट्टरपंथियों को रिझाने के लिए यह कदम (भारत पर बिना जानकारी और सबूतों के आरोप-प्रत्यारोप का क्रम) ट्रुडो ने उठाया। जहाँ एक ओर आजादी की लड़ाई से संबंधित किस्से हैं, तो वहीँ दूसरी ओर आज़ाद भारत से अलग एक सिख राज्य – खालिस्तान – के समर्थकों का समर्थन है। मामला निश्चय ही गंभीर है, और पड़ताल भी गंभीर मांगता है।
खालिस्तान का मुद्दा भारतीय समाज और राजनीति दोनों को साठ के दशक के अंत से अस्सी के दशक तक सीधे प्रभावित करता रहा है। इस मुद्दे की गंभीरता इतिहास की किताबों में पढ़ने को तो मिलती ही है, कुछ फिल्मकारों, गीतकारों आदि ने भी इसके अलग-अलग पहलुओं को अपनी समझ ओर रुझान के हिसाब से दिखाया है।
बहरहाल, भारत-कनाडा संबंधों में आयी हालिया खटास को समझने के लिए मैंने भारत की प्रसिद्ध रक्षा और रणनीति विशेषज्ञ डॉ स्वस्ति राव से बात की। डॉ राव मनोहर पर्रिकर रक्षा अध्ययन एवं विश्लेषण संस्थान (MP – IDSA) में बतौर एसोसिएट फेलो भी काम कर चुकी हैं। इसके साथ ही वह भारत और दुनिया के कई देशों में मीडिया, रिसर्च पेपर्स, और टॉक्स के माध्यम से बड़ी स्पष्टता के साथ देश दुनिया के महत्वपूर्ण मुद्दों पर अपनी बात रखती आयी हैं।
उनका कहना है-
“दशकों से कनाडा में उदारवादी और रूढ़िवादी दोनों ही पार्टियों ने खालिस्तानी समर्थकों को बढ़ावा दिया है। ट्रूडो के मामले में कुछ राजनीतिक गुटों पर उनकी निर्भरता स्पष्ट है। संसद में बिना किसी ठोस सबूत के सार्वजनिक रूप से भारत पर आरोप लगाने का उनका हालिया कदम परेशान करने वाला है और ऐसा लगता है कि इसके पीछे अन्य कारक भी हैं। ट्रूडो की लोकप्रियता कम होती जा रही है, उनके हालिया चुनाव में चीनी हस्तक्षेप के आरोप लगे हैं, जिसकी विपक्षी दलों ने आलोचना की है। भारत के साथ विवाद खड़ा करना शायद इन आरोपों से ध्यान हटाने का प्रयास हो सकता है।
इसके अलावा, भारत ने प्रभावी रूप से कनाडा पर जिम्मेदारी डाल दी है, उसने भारत में वांछित 26 कट्टरपंथियों और अपराधियों के प्रत्यर्पण अनुरोध फिर से प्रस्तुत किए हैं, जिन्हें कनाडा ने अब तक अनदेखा किया है। भारत ने निष्पक्ष रूप से पूछा है कि कनाडा सरकार खालिस्तानी तत्वों को कनाडा के भीतर भारत विरोधी गतिविधियों को संगठित करने से रोकने के लिए क्या कदम उठा रही है? दुर्भाग्य से, ट्रूडो की सरकार ने इस मोर्चे पर बहुत कम सहयोग दिखाया है।
यह स्पष्ट है कि आज, कनाडा के लोग खुद ट्रूडो के बारे में राय बदल चुके हैं, जैसा कि उनकी घटती स्वीकृति रेटिंग में परिलक्षित होता है। कनाडा भी गंभीर आवास और बुनियादी ढांचे के संकट का सामना कर रहा है – एक ऐसी समस्या जो समय के साथ बढ़ी है। भारत को ट्रूडो के बाद के युग में रणनीतिक, आर्थिक और प्रवासी-स्तरीय संबंधों को मजबूत करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, खासकर जब ट्रूडो के अपने सांसदों ने भी उनसे पद छोड़ने का आह्वान किया है।
अगर आने वाली सरकार वास्तव में अपनी प्रतिबद्धताओं को पूरा कर पाती है तो भारत-कनाडा संबंधों में सुधार होने की संभावना है। भारत की सहयोग करने की इच्छा कभी कम नहीं हुई है, और द्विपक्षीय व्यापार 9 बिलियन अमेरिकी डॉलर के करीब पहुंच रहा है। कनाडाई पेंशन फंड तेजी से भारत में निवेश कर रहे हैं, चीन से दूर जा रहे हैं, और कनाडा में भारतीय मूल के 3 मिलियन से अधिक लोग रहते हैं। दोनों देश इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में एक रणनीतिक दृष्टिकोण भी साझा करते हैं। संक्षेप में, ट्रूडो के पद से हटने के बाद भारत और कनाडा के बीच सहयोग के लिए बेहतर आसार दिखाई देते हैं।”