रायबरेली के आधारशिला कॉलेज ऑफ़ प्रोफेशनल एजुकेशन और राष्ट्रीय मानवाधिकार फाउंडेशन के तत्वधान में मानवाधिकार गोष्ठी में आये अधिकारी-कर्मचारियों ने अपने विचार व्यक्त किये। मानवाधिकारों की समाज में कम समझ और अधिकारी-कर्मचारियों का स्वछंद रवैय्या काफी हद तक इनके उल्लंघन के लिए जिम्मेदार होता है। इसके अलावा मानवाधिकारों के प्रति उदासीनता और समाज में गिरते मूल्य भी कहीं-न-कहीं इसके छरण का कारण बनते हैं।
स्वरोचिष सोमवंशी (जिलाधिकारी, सीधी, मध्य प्रदेश) ने थॉमस पेन की किताब ‘राइट्स ऑफ़ मैन’ का उल्लेख किया और और बताया क़ि कैसे मानव जीवन के साथ अधिकारों का होना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, और कैसे इन अधिकारों की राज्य/सरकार से मांग इस मुद्दे को एक जटिल मुद्दा बनाती है।
न्यायमूर्ति रणविजय सिंह ने कहा कि मानवाधिकार एक वृहद विषय है , और समाज में हो रहे सभी काम मानवाधिकार से जुड़े हुए हैं। उन्होंने जोड़ा कि भारतीय इतिहास और ज्ञान परम्परा में इतना सब कुछ उपलब्ध है कि हमें कहीं बाहर देखने की जरूरत नहीं है। शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार की आवश्यकता पर भी उन्होंने जोर दिया। साथ ही, हमें स्वयं को सबल बनाने पर जोर देना चाहिए। श्री सिंह ने यह भी कहा कि पुस्तकों से लोग दूर होते जा रहे हैं, जो कि चिंतनीय है।
रतन कुमार श्रीवास्तव (पूर्व पुलिस उप महानिरीक्षक) ने कहा कि मानवाधिकार के उल्लंघन पर हमें न्यायपालिका की शरण लेनी चाहिए।
राधेश्याम त्रिपाठी (पूर्व पुलिस महानिरीक्षक) ने महिलाओं के अधिकारों पर चर्चा की और एक तेजस्वी भासन में समाज की स्थिति और बदलते परिवेश में सभी मानवाधिकारों की रक्षा के लिए आवश्यक प्रयासों की ओर उपस्थित लोगों को ध्यान दिलाया।
सुलखान सिंह (पूर्व पुलिस महानिदेशक) ने अपने भाषण में कहा कि किसी भी स्थिति में मानव सम्मान और गरिमा पर किसी भी तरह से आंच नहीं आनी चाहिए। नयी पीढ़ी में गायब होते मूल्यों के प्रति चिंता करते हुए श्री सिंह ने कहा कि केवल राम का नाम लेने से कुछ नहीं होगा, हमें उनके आचरणों का पालन करना चाहिए। इसलिए यह जरुरी है कि हम विचार करें कि मानवाधिकारों को जरुरी समझते हैं या नहीं। गाँधी जी के स्वराज के लेख का उद्धरण देते हुए उन्होंने कहा कि स्वराज का मतलब जनता में अथॉरिटी के दुरूपयोग का साहस आ जाये। मोरारजी देसाई ने समाज को भयमुक्त बनाने की बात की थी। शासक और जनता के कार्यव्यवहार में अंतर होना चाहिए। आज़ादी के इतने सालों बाद भी यदि पुलिस-प्रशासन के लोग जनता से दुर्व्यवहार करते हैं और उसे चुपचाप देखा जाए तो यह गलत है। पुलिस-प्रशासन और न्यायपालिका के लोग जनता के सेवक हैं जिन्हे सीमित अधिकार दिए हैं, वे संविधान द्वारा दिए गए अधिकारों से ज्यादा नहीं कुछ नहीं कर सकते। उनके द्वारा किये जा रहे अत्याचार का विरोध होना चाहिए। पुलिस की छवि यहाँ बहुत ख़राब है। यहाँ डरे हुए नागरिक बन रहे हैं। मानवाधिकार अपरिहार्य हैं।
राजीव दीक्षित (पुलिस अधीक्षक, मेरठ, ईओडब्ल्यू) ने कहा क़ि पुलिस वालों को देख कर समाज में सुरक्षा का भाव है, बल्कि भय का भाव आता है। समाज में और प्ररिवार में मूल्य बहुत ज्यादा बदल चुके हैं। और सोशल मीडिया के इस दौर में धीरे-धीरे अनुशासन गायब होता जा रहा है। इसलिए यह जरुरी है क़ि सभी को अपने, अपने परिवार और समाज-देश के प्रति कर्तव्यों की जानकारी हो। इसके साथ ही, श्री दीक्षित ने बैसवारा क्षेत्र के तमाम साहित्यकारों का नाम लेते हुए उनकी रचनाओं में वर्णित देश-समाज की बात की।
इस विमर्श के बाद जो बात निकलकर वह यह है कि किसी के मानवाधिकारों का हनन होने पर उसे अकेला छोड़ दिए जाने या भूल जाने की सलाह देने को हम यदि सही मानते-ठहराते रहेंगे तो किसी स्थिति में अपने अधिकारों और सम्मान की रक्षा कर पाने में सफल नहीं हो सकते हैं।