भारत में जहाँ आबादी एक बड़ा हिस्सा गाँवों और कस्बों में रहता है और जो आजीविका के लिए छोटे-मोटे काम-धंधे की तलाश में भटकता हो, या अपनी थोड़ी सी जमीन की पैदावार पर निर्भर हो, उस पर यदि अपनी या अपने परिवार के स्वास्थ्य पर जेब से खर्च करना पड़े तो यह उसकी आर्थिक स्थिति पर प्रहार जैसा ही होता है। दाल-रोटी कमाने के प्रयास में लगे व्यक्ति के लिए अतिरिक्त आर्थिक व्यय को अपने यहाँ की व्यवस्थाएं और बढ़ा देतीं हैं। होता यह है कि एक ओर राज्य और केंद्र सरकारों द्वारा सरकारी अस्पतालों और दवाखानों को दुरुस्त करने के साथ-साथ हेल्थ इंश्योरेंस के लिए बड़ी योजनाएं लागू कि गयीं हैं, वहीँ हम आये दिन सरकारी अस्पतालों की बदहाली, सुविधा का अभाव, साफ़-सफाई की दिक्कतें, स्टॉफ की अनुपलब्धता और कभी-कभार अधिकारी या मंत्री (!) का छापा और जांच जैसी ख़बरों को पढ़तें रहते हैं। अस्पतालों के दलालों के नेटवर्क पर भी तमाम अख़बारों ने लिखा है, और इसमें कम-से-कम रायबरेली के राणा बेनी माधव सिंह चिकित्सालय के आसपास के कुछ मेडिकल स्टोर वालों पर सवालिया निशान भी लगाए गए हैं। वहाँ कुछ सिस्टम ऐसा फिट है कि अंदर एक अलग पर्ची पर दवा लिखी जाती है, और वह बाहर ही मिलती है। मरीजों के साथ आये तीमारदारों ने यहाँ तक बताया कि अंदर से ही कुछ दलाल उन्हें निजी अस्पतालों में ले जाते हैं। जाहिर सी बात है निजी अस्पताल में खर्च तो ज्यादा होगा ही। यहाँ यह बात लिखना भी जरुरी है कि निजी चिकित्सा व्यवस्था में जिसकी क्षमता हो वह इलाज कराये तो ठीक है लेकिन यदि सरकारी व्यवस्था में सेंध मार कर लाभ कमाया जाये तो उसके वैधानिक प्रावधान हैं। बहरहाल, गाँवों से जिलों के बड़े अस्पतालों तक आने-जाने में समय और धन का अतिरिक्त खर्च होना स्वाभाविक है। जिसके साथ आय के अनुपात में व्ययभार बढ़ जाता है। और स्वास्थ्य सम्बन्धी दिक्कतों में सुधार हो सके यह जरुरी नहीं है। AIIMS अभी पूर्ण-विकसित नहीं है और वहाँ की खामियों पर दिशा की हालिया मीटिंग में चर्चा हुई है।
गरीब और मध्यम वर्ग के लिए बार-बार ठीक-ठाक फीस दे पाना संभव नहीं होता। डॉक्टरों की काबिलियत पर सवाल नहीं है, उस मॉडल पर है, जिसके कारण ऐसी व्यवस्था बन गयी है। ऐसे में जब देश भर के अलग-अलग क्षेत्रों में बैठे काबिल डॉक्टर ऑनलाइन माध्यम से मरीज से वीडियो कॉल के जरिये, तुलनात्मक रूप से कम पैसे में सही सलाह दें तो इसकी चर्चा करना जरुरी है। ई-चिकित्सामित्र एक ऐसी ही प्रणाली है, जिसमें छोटे और मध्यम आकार के मेडिकल स्टोर संचालक एक ऍप के जरिये मरीजों को उनकी दिक्कतों से सम्बंधित डॉक्टरों से परमर्श करने का विकल्प उपलब्ध है। डॉक्टर मरीज से बात करते हैं, जरूरत लगने पर जांच और उसी हिसाब से दवा लिखते हैं। समय-समय पर मुफ़्त कैम्प भी लगाए जाते हैं। रायबरेली कानपुर मार्ग पर शहर से करीब दस किलोमीटर दूरी पर स्थित किलौली चौराहे का सिंह मेडिकल स्टोर इस ऑनलाइन व्यवस्था के जुड़ा हुआ है। स्टोर के संचालक राजेंद्र सिंह का कहना है कि “गाँव-देहात और यहाँ तक की शहरों के मरीज हमारे पास आते हैं, और यदि स्वयं नहीं आ पाते हैं, तो वीडियो कॉल के माध्यम से डॉक्टरों से जोड़ दिए जाते हैं। डॉक्टर उन्हें उनकी समस्या के हिसाब से जांच और दवा देकर जरूरत पड्ने पर वापस कनेक्ट करने के लिए बता देते हैं।”
चूँकि वातावरण, खान-पान और जीवनशैली से होने वाली बीमारियां समाज के अलग-अलग वर्गों को अलग-अलग तरह से प्रभावित करती हैं, और इंटरनेट डाटा पहले की तुलना में सस्ता हुआ है, इस व्यवस्था से लोगों को आराम मिल रहा है।
न्यूयॉर्क में काम कर रही डॉक्टर नेरिसा ने बताया कि विकासशील देशों में इस तरह के विकल्प होना अच्छी बात है, लेकिन बीमारी के शुरुआती दौर से ही इलाज करवाने पर ध्यान देना जरुरी है। सिंह का कहना है कि वह ई-चिकित्सा प्रणाली से स्वयं प्रभावित हैं, और व्यवसायी होने के बावजूद उनका ध्यान केवल अनाप-शनाप लाभ पा लेना नहीं है।
वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाइजेशन और संयुक्त राष्ट्र भी एक्सेस टू अफोर्डेबल हेल्थकेयर की बात करता है, मतलब कि लोगों को सस्ती और सुलभ स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच मिलना जरुरी है। ऐसे में यदि ऑनलाइन चिकित्सामित्र जैसे प्रयोगों से यदि स्वस्थ समाज बन सकता है तो इस पर बात करना जरुरी है।