हरियाणा विधानसभा चुनाव के परिणामों ने सभी को आश्चर्यचकित कर दिया है। मतगणना से पहले आये ज्यादातर एग्जिट पोल्स में कांग्रेस को पूर्ण बहुमत दिया जा रहा था। सी-वोटर से कांग्रेस को 50 -58 सीटें, भास्कर रिपोर्ट्स पोल ने 44 -54 सीटें, और रिपब्लिक-मैट्रिज़ ने 55 -62 सीटें पाने का अनुमान लगाया था। NDTV और द हिन्दू ने भी कई एग्जिट पोल्स के सहारे से यह घोषणा कर दी थी कि भाजपा को हराकर कांग्रेस अपने दम पर सरकार बनाने जा रही है। एग्जिट पोल्स में सैंपल सिलेक्शन और हाल के घटनाक्रम के अनुरूप से आंकड़े मिल पाते हैं , जिसके कारण सिलेक्शन बायस और पूर्वाग्रह का होना उत्तर देने वालों के उत्तर को प्रभावित करता है। नतीजतन एक अनुमान तो हो जाता है, लेकिन वह किसी एक पक्ष की ओर झुका हुआ रहता है।
मई 2024 के लोकसभा चुनावों में ओपनियन सर्वे भाजपा को सभी सीटें दिलाने का दावा ठोंक रहे थे, लेकिन यथास्थिति ऐसी बनी की वहाँ कांग्रेस ने एक अच्छी वापसी की। पिछले चुनावों का ट्रेंड देखकर भविष्यवाणी करने वाले लोगों और संस्थानों की बातें ऐसे ही कई बार गलत साबित हुई हैं। मतलब साफ़ है, ओपिनियन और एग्जिट पोल्स का जमीनी हक़ीक़त के बहुत करीब हो पाने की बात सही नहीं है। यह उन संस्थानों के अतिउत्साह के साथ-साथ मतदाताओं को प्रभावित करने वाली रणनीति का हिस्सा भी हो सकते हैं। ऐसा लिखने का कारण यह है कि यदि मतदाता को यह आभास हो जाये कि फला पार्टी की सरकार बनने की सम्भावना ज्यादा है तो वह उस पार्टी के पक्ष में मतदान कर सकता है। हालाँकि यहाँ मतदाता को केवल एक मूक दर्शक या सुचना के कंस्यूमर की तरह मान लेना भी सही नहीं है। और शायद यह भी एक कारण है कि लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को वापस पांच सीटों पर जितने वाले मतदाताओं ने कुछ ही महीनो के अंतर पर हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा कि दमदार वापसी को सुनिश्चित किया है। यहाँ एक तथ्य और भी गौर करने लायक है कि चूँकि लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के सहयोग वाला इंडिया /इंडी गठबंधन पिछले चुनाव की तुलना में अच्छा प्रदर्शन करने के बावजूद केंद्र में सरकार नहीं बदल पाया, मतदाताओं ने भी यह मान लिया हो कि यदि राज्य में कोई और सरकार बनेगी तो केंद्र-राज्य के बीच सामंजस्य की कमी के चलते प्रदेश में समस्यें हो सकतीं हैं।
कांग्रेस भी लोकसभा चुनाव में अपने प्रदर्शन से निश्चय ही खुश रही होगी, और शायद उसी अंदाज़ में उसने जनता के बीच अपनी बातें रखीं, लेकिन राजनीति शास्त्र के अध्येता और जमीनी राजनीति की समझ रखने वाले लोग इस तथ्य को जानते हैं कि लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनाव में अंतर होता है। यह भी पता चला है कि कई स्थानों में कांग्रेस के बूथस्तर के पद खाली पड़े थे, जिसका असर चुनाव परिणामों के बाद हमारे सामने है। कुमारी शैलजा और हुड्डा के बीच की रस्साकसी का सार्वजनिक हो जाना भी कांग्रेस के लिए एक नकारात्मक कारण बन गया। इसकी तुलना में भाजपा के कैडर ने मेहनत की, जनता से संवाद किया और किसान +पहलवान आन्दोलनों के अपने विरोध को अपने प्रचार के दौरान किनारे रखा।
जाट समुदाय के संख्या में लगभग पांच प्रतिशत होने के बावजूद हरियाणा के ज्यादातर मुख्यमंत्री इसी से हुए हैं। भाजपा ने इस बात को समझते हुए अन्य समुदाओं में अपनी पकड़ बढ़ाने की रणनीति सैनी को मुख्यमंत्री बनाकर ही कर दी थी। जहाँ विज की नाराजगी को कुछ लोगों ने भाजपा के वोट प्रतिशत काम करने का एक कारण आँका था, वहीँ जाट बनाम गैर-जाट का मुद्दा ज्यादा प्रभावी हुआ, ऐसा लगता है।
जहाँ दलित वोटों के कारण लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को फायदा मिला, वहीँ कुमारी शैलजा और हुड्डा के बीच की तकरार और कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व का इस मामले में कोई ठोस कदम न ले पाने के कारण दलित वोट बंट गए। मतदाताओं में लगभग बीस प्रतिशत दलित समुदाय वाले राज्य में वोटों के बाँटने का फायदा भाजपा को मिला , जिसका एक कारण भाजपा का लगातार यह दोहराना भी रहा है कि वह सबका साथ -सबका विकास चाहने वाली पार्टी है।
जिस तरह से लोकसभा चुनाव के दौरान कांग्रेसी कार्यकर्ता प्रचार-प्रसार में जुटे थे वह विधानसभा चुनाव में नदारद रहा। ऐसा नहीं है कि प्रयास नहीं किये गए, लेकिन भाजपा और संघ की रणनीति और जमीनी पहुँच ने भाजपा को एक बार पुनः हरियाणा की गद्दी दिलवा दी है।