जुलाई 2023 में तत्कालीन केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ मनसुख मंडाविया ने एम्स रायबरेली में कई सुविधाओं का लोकार्पण किया था। मंच से डॉक्टरों और एम्स के कर्मचारियों को सम्बोधित करते समय उन्होंने कई बातों का जिक्र किया था, जिसमें उन्होंने डॉक्टरों के काम को व्यवसाय से ऊपर सेवाभाव वाला बताया था और कहा था कि एम्स रायबरेली को इस दिशा में काम करना चाहिए। इसके अलावा उन्होंने इस बात पर भी बल दिया था था कि मरीजों की समस्याओं, दवाओं की उपलब्धता, निर्माणकार्य आदि में कहीं भी गुणवत्ता में कमी नहीं होनी चाहिए। इसके लिए एम्स में समितियों का निर्माण होना चाहिए, जो अलग-अलग मुद्दों पर चर्चा कर उन्हें अपने उच्च अधिकारीयों को बताएं और यदि वहां से भी हल न निकले तो बात को राजनीतिज्ञों तक पहुचाये जाने में कोई हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए।
डॉक्टरी एक ऐसा पेशा है जिसमें शामिल व्यक्ति समाज में एक संभ्रांत दर्जा पा जाता है। ऐसे में यह सम्भव है कि जब तक बहुत बड़ी बात न हो एम्स में कार्यरत डॉक्टर सीधे राजनीतिज्ञों के सम्पर्क में न आएं। समाज के संभ्रांत लोग छोटी-छोटी बातों को अनदेखा /इग्नोर करके ही संभ्रांत बनते हैं। लेकिन लैटिन कहावत है कि गार्ड पर नज़र कौन रखे ? मतलब जो निगरानी करते हैं, उन पर भी निगरानी करते रहना जरुरी है। इसलिए यह जिम्मा कुछ हद तक मीडिया का हो जाता है कि वह एम्स के अच्छे-बुरे पहलुओं पर उसी तरह दृष्टि डाले जैसे बाकी मुद्दों पर डाली जाती है।
एम्स शायद फण्ड की कमी से जुझ रहा है इसलिए हज़ारों के दैनिक फुटफॉल वाले एम्स के शौचालयों में साबुन या हैंडवाश नहीं पहुँच पाए हैं। अब गाँधी जी से लेकर वर्तमान प्रधानमंत्री मोदी जी यदि स्वच्छता की बात करते हैं तो क्या हुआ, यहाँ केवल बातों से आदतें नहीं बदल जाती हैं, यह भी एम्स लगातार दिखाना चाहता है। दूसरी बात, रैम्पों पर लगे मधुमखियों के छत्तों की है, तो उसमे क्या है जी? शुद्ध शहद पाने के उपाय के रूप में भी तो एम्स ने यह मेंटेन किया होगा? पर्यावरण, स्वास्थ्य और सस्टेनेबिलिटी के संयुक्त राष्ट्र के लक्ष्यों को एम्स कैसे नकार सकता है ? तीसरी, जो मंडाविया जी ने जो निर्माण की गुणवत्ता की बात कही थी वह तो ऐवे ही बोल दी होगी। एम्स की चारपहिया पार्किंग अभी ख़ाली पड़े एक मैदान में होती है। जगह है, इसलिए एक-दो गार्ड्स की निगरानी में गाड़ियां वहीँ खड़ी हो जाती हैं। अब इससे क्या फर्क पड़ता है कि मुख्यमार्ग से पार्किंग की तरफ जाने के लिए जो मोड़ है वह समतल है या नहीं? मतलब, ज्यादा-से-ज्यादा गाडी ही तो खट्ट से लड़ेगी ?
अब इस बात की चर्चा करने से क्या फायदा कि सब लिफ्टें सभी तलों पर नहीं ले जाती हैं? लिफ्टों के ऊपर वह किस तल पर रुकेंगी यह केवल कॉर्पोरेट हाउसेस में लिखा जाता है, एम्स जैसे संस्थानों में थोड़ी न।
अच्छा इस बात को लिखने से क्या मिलेगा कि 32 नंबर कमरे में जांच के लिए जाने पर टोकन या डिस्प्ले स्क्रीन लगाने से न वहां उपस्थित कर्मचारियों को चिल्लाना पड़ेगा और न ही मरीजों और तीमारदारों को उचक-उचककर कर यह देखना पड़ेगा कि कौन उनका नाम लेकर बुला रहा है?
जन-औषधि में सभी दवाएं नहीं मिलती हैं, यह कहना भी कोई बात हुई? अमृत फार्मेसी से लेकर गेट के बाहर तक इतने विकल्प हैं कि इस तरह की चर्चाओं के महत्व पर ही प्रश्न-चिन्ह लग जाते हैं।
नाहक ही कर्नल साहब ने पत्र लिखकर अंदर की बातें बाहर न जाएँ ऐसा कुछ कह दिया है। भारत देश की जनता है, वह जानती सब है, भूलती जल्दी है और सब कुछ सही तो है ऐसा मानकर दिन-महीने-साल गुजारती जाती है, भले ही वह चाय-पान की दुकानों पर अपनी कुंठा विशेषणों से व्यक्त करना अपना नैतिक अधिकार मानती रहे।