रायबरेली, 31 दिसंबर। जनपद के बहुद्देशीय अस्पताल एम्स निराला है। एक बड़े क्षेत्रफल में फैले एम्स में पिछले कुछ सालों से धीरे-धीरे नए विभाग शुरू हो चुके हैं और उनमे से कई में मरीजों को देखने का काम भी शुरू हो चुका है। मरीज और तीमारदारों को मिलकर प्रतिदिन लगभग दो से ढाई हज़ार लोग एम्स में आते हैं। पांच मंजिला मुख्य ईमारत में हर फ्लोर पर कुछ न कुछ चलता रहता है। और सभी पर महिला और पुरुषों के लिए एक से अधिक शौचालय बने हैं, लेकिन इनमे से किसी में भी हैंडवाश या साबुन उपलब्ध नहीं हैं। वैसे तो भारतीय व्यवस्था में व्यक्ति मॉल-मूत्र विसर्जन के दौरान मिटटी या कोयले की राख का प्रयोग करता था, जिससे बीमारियों का खतरा बना रहता था। इसके निवारण के लिए नब्बे के दशक के आसपास हाथ साफ़ रखने के प्रयासों की शुरुआत की गई थी। धीरे-धीरे समाज में इस विषय पर जागरूकता फैली, तो आदतों में भी बदलाव देखने को मिलने लगे। लेकिन रायबरेली एम्स में यह प्रयास असर नहीं कर पाए। पिछले एक महीने में अपने कई बार के भ्रमण के दौरान मुझे किसी भी पुरुष शौचालय में साबुन, हैंडवाश या सैनिटाइज़र नहीं मिले। डॉक्टरों को दिखाने जाइये तो एम्स में दो से तीन घंटे बिताने पड़ते हैं- परचा बनवाने से लेकर डॉक्टर को दिखाकर दवा लेने तक यह समय और ज्यादा भी हो सकता है। फेस मास्क की अनिवार्यता लिखी हुई है, और काफी लोग इसका पालन भी करते हैं , लेकिन शौचालय में मल-मूत्र विसर्जन के बाद केवल पानी से हाथ धो लेना पर्याप्त तो नहीं है। कभी-कभार डॉक्टर जांचे लिख देते हैं, कई जांचों के लिए एक बार खाली पेट और उसके बाद कुछ खाकर वापस जाना होता है। खाने के लिए वहीँ बिल्डिंग में कैंटीन है। कैंटीन के आसपास भी न कोई हाथ धोने की व्यवस्था है और न ही सैनिटाइज़र रखे गए हैं। एम्स में आये मरीज बहुत अलग-अलग तरह की बीमारियों से जूझ रहे होते हैं। कोविड आपदा के बाद से वैसे भी संक्रमण की रोकथाम के लिए प्रयास और किये जाने चाहिए। लेकिन एम्स इन सबसे फिलहाल परे है। कॉलेज के दिनों में ऐसी जगहों की बात करते समय हमारे एक सीनियर कहा करते थे कि इसे मंदिर /चर्च/ गुरुद्वारा या मस्जिद मान लिया गया है कि वहां जाने पर पाप धुल जायेंगे। मसला यह है कि सामना पाप से नहीं गंदगी से है।