प्रदेश में कानून व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त करने के लिए मुख्यमंत्री स्तर से लगातार आदेश आते रहते हैं, लेकिन कई घटनाओं में ऐसा देखा गया है कि पुलिस-प्रशसन के चुनिंदा अधिकारी-कर्मचारी पीड़ित पक्ष का मुकदमा नहीं लिखते हैं और समझौते का दबाव बनाते हैं। इसके पीछे उनकी अकर्मण्यता या लाभ पाने का कोई उद्देश्य हो सकता है। उसके बाद भी यदि मुकदमा लिखना पड़े तो तहरीरें बदलवायी जातीं हैं। हल्की धाराओं में मुकदमा लिखा जाता है और असली अपराधी का जितना बचाव हो सकता है उतना किया जाता है। फिर एक क्रॉस एफआईआर लिख दी जाती है। निश्चय ही इस बीच हर-तरह से सुलह-समझौते का दबाव डाला जाता है। भ्रष्ट और अयोग्य नेता इस काम में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले या शौकिया अपराधी बन रहे तत्वों का साथ देते हैं। इसके फायदे दोनों पक्षों को हैं। अपराधियों को प्रोटेक्टिव कवर मिलता है, और कम्पटीशन में असफल रहने वाले नेताओं को गुंडों की एक श्रृंखला। पुलिसिंग वैसे भी ज्यादातर जगहों पर मुख्यमार्गों पर टहलते हुए फोटो खिंचवाने तक सीमित होती जा रही है। कुछ राहत महसूस कर रहे आपराधिक तत्व पीड़ित को दबाने या तोड़ने का सामाजिक रूप से जितना प्रयास कर सकते हैं, उसमे कोई कसर नहीं छोड़ते हैं। पीड़ित का धीरे-धीरे पुलिस प्रशासन से विश्वास उठने लगता है और समय के साथ दो बातों का होना सम्भव हो जाता है – या तो पीड़ित चुप होकर सामाजिक, आर्थिक और शारीरिक पीड़ा को झेलते हुए अपने घर परिवार की ओर ध्यान देने लगे या स्वयं कोई ऐसा कदम उठाए जिससे वह इस दुष्चक्र में स्वयं फंस जाए, जिसे देशी भाषा में कींचड़ में पत्थर मारने जैसा कहा जायेगा। मानवाधिकार आयोगों से आयी हुई जांचों पर पुलिस के बड़े अधिकारी हस्ताक्षर जरूर करते हैं, लेकिन स्वयं कार्यालयों से अनुपस्थित मिलते हैं। वैसे भी उनसे मिलने के लिए लाइन में लगिए और बाहर खड़े सिपाही-दरोगा से दो-चार बार अपनी बात कहिये तब ऐसा संभव हो सकेगा। वह मिलने पर भी सही कार्यवाही कर देंगे यह कह पाना मुश्किल है। घनी आबादी वाले इस प्रदेश में सामाजिक स्तर पर पीड़ित को ही पहले कठघरे में खड़ा कर दिया जाता है। इसमें तय रूप से दलाल, राजनीति के विदूषक/श्रमण साधु, और घुटन में जीने के आदी लोगों का एक तबका शामिल रहता है। इसमें गलत क्या है कहने वालों का भी इसमें काफी रोल रहता है। सड़ांध विचारों में होती है, लेकिन विचार योग्य दिमाग बचते कम ही हैं। समय बीतता है और न्यायपालिका का जाल, जैसा कि किसी पूर्व न्यायाधिकारी ने कहा था, बड़ी मछली को जाने देता है और छोटी को फंसा देता है। मानवाधिकार दिवस आने वाला है और इस विषय पर लिखने पढ़ने और न्यायपालिका के निर्देशों के पालन की अपेक्षा रखने से पहले उपरोक्त प्राक्कथन को पढ़ना भी जरुरी है। क्या है न मानवाधिकारों पर काम करने या इन मुद्दों को उठाने के लिए ज्यादा पैसे भी नहीं मिलते। और फिलवक्त ये ज्यादातर लोगों की समझ से बाहर के विषय हैं, या जानते सब हैं लेकिन कुछ दाल-रोटी के फेर में और कुछ ‘मेरे को क्या’ अंदाज़ में बगल से निकल लेते हैं। अब अवतार सिंह संधू ‘पाश’ की ‘सबसे खतरनाक’ कविता पढ़ने-समझने का जतन कौन करे?
अच्छे लोग भी हैं, और सही अधिकारी-कर्मचारी भी: इस तथ्य को लिखना भी जरुरी है।