2 दिसंबर, 1984 की रात को भोपाल में यूनियन कार्बाइड इंडिया के कीटनाशक संयंत्र से जहरीली गैस लीक हुई, जिससे पूरा शहर घने-विषैले कोहरे में डूब गया। इसमें हज़ारों लोगों की मौत हो गई और लगभग पाँच लाख लोग ज़हर के शिकार हो गए। सरकारी आंकड़ों के हिसाब से गैस रिसाव के कुछ दिनों के भीतर लगभग 3,500 लोग मारे गए। इस त्रासदी का दुष्प्रभाव आने वाले कई सालों तक दिखाई दिया। उसके बाद के वर्षों में इस संख्या के पाँच-छह गुना से ज़्यादा लोग मारे गए। सामाजिक संस्थाओं का कहना है कि अभी भी इसके प्रभाव लोगों को हानि पहुंचा रहे हैं। 2010 में यूनियन कार्बाइड के सात पूर्व प्रबंधकों को दोषी ठहराते हुए न्यायालय ने मामूली जुर्माना और कुछ समय के लिए जेल की सज़ा सुनाई। इस त्रासदी की भयावहता को देखते हुए यह कहना गलत नहीं है कि अभी भी न्याय नहीं हुआ है।
अब सवाल यह भी आता है, जो थोड़ा दार्शनिक और सैद्धांतिक लग सकता है, कि देश के अलग-अलग शहरों में बनी फैक्ट्रियों से फैलता प्रदूषण धीरे-धीरे कितनों की जान ले रहा है और क्या इसे भोपाल त्रासदी का स्लो-मोशन रूप नहीं कहेंगे? क्या विकास की यही कीमत जनता को कभी-न-कभी चुकानी ही पड़ेगी? दिल्ली-एनसीआर में जो स्थिति हर साल बन जाती है वह छोटे और मझोले शहरों में भी तो है, किसी अलग स्तर पर। ऐसे में क्या जीवन जीने के अधिकार की विवेचना कर लेना पर्याप्त है? या दुर्घटनाओं के बाद गवाह और सबूतों के फ़ेर में इंतजार करते न्याय की?