टाटा परिवार की एक पीढ़ी के नायक ने हमें अलविदा कह दिया है। रतन केवल नाम से ही नहीं बल्कि काम से भी एक रतन ही थे।
टाटा परिवार के बारे में मेरे इस लेख के छपने तक बहुत कुछ लिखा जा चुका होगा। इसलिए किस्सा लम्बा बताने की जगह टाटा परिवार से जुडी दो कहानियां सुनाना चाहता हूँ, इन कहानियों ने कहीं न कहीं हमारी पीढ़ियों को प्रभावित किया है और आगे भी करती रहेंगी।
टाटानगर या जमशेदपुर के विकास का श्रेय जमशेद जी टाटा को जाता है। बीसवीं सदी के शुरुआती दौर में जमशेदजी कुछ नया करने के लिए देश-दुनिया में घूम रहे थे। इन्होने कहीं स्टील फैक्टरियों के बारे में सुना और इच्छा बनायीं कि भारत के मध्य भाग में एक ऐसा प्लांट लगाया जा सकता है। अब इनको जरूरत पड़ी एक ऐसे व्यक्ति कि जो इस क्षेत्र को समझता हो। जूलियन केनेडी ने चार्ल्स पेज पेरिन का नाम सुझाया। पेरिन एक भूवैज्ञानिक और धातुवैज्ञानिक के रूप में पूरी दुनिया में प्रसिद्ध थे। केनेडी की सलाह पर वह एक भारतीय व्यापारी से मिलने को तैयार तो हो गए थे, लेकिन उनके मन में यह संशय था कि एक गुलाम और पिछड़े हुए देश में यह सब कैसे हो पायेगा। ऐसे उद्धरण मिलते हैं कि फैक्ट्री शुरू होने से पहले पेरिन ने जमशेदजी से कहा कि आपके यहाँ अनुकूल मौसम नहीं है। इस पर जमशेदजी का जवाब था- आप चिंता न करिये। आप शुरू करिये, मौसम हम ले आएंगे।
दूसरा किस्सा रतन टाटा और बिल फोर्ड की बातचीत का है। टाटा कंपनी की इंडिका कार का प्रदर्शन बहुत अच्छा नहीं था । इस पर फोर्ड ने रतन पर तंज कसा था कि जिस चीज की जानकारी न हो उसमे ज्यादा प्रयोग नहीं करने चाहिए। इस बात का जवाब समय के साथ रतन टाटा ने दिया। फोर्ड कंपनी कुछ सालों में बिक गई और उसके सबसे महंगे सेगमेंट जगुआर को टाटा ने खरीद लिया।
हो सकता है कि इन कहानियों की कुछ बारीकियां रह गयीं हों या कुछ डॉयलोग्स अलग रहे हों, लेकिन सार में टाटा परिवार का दृढ़निश्चय ही है।
बाकी और कभी, फिलवक्त के लिए अलविदा रतन !