पुलिस और जांच एजंसियों की नियम-कायदों को ताक पर रख कर और मानवाधिकारों की परवाह किए बगैर मनमानीपूर्ण तरीके से कार्रवाई करने की कोशिश प्रकट तथ्य है। अपराधियों को सुधारने और आपराधिक मामलों में जानकारियां जुटाने के नाम पर कई बार गिरफ्तार किए गए लोगों की इस बेरहमी से पिटाई की जाती है कि वे हिरासत में ही जान गंवा बैठते हैं।इसे लेकर लंबे समय से अंगुलियां उठती रही हैं, मगर चिंता का विषय है कि हिरासत में होने वाली मौतों का आंकड़ा कम होने का नाम नहीं ले रहा। जिन राज्यों में सरकारों ने सुशासन के नाम पर पुलिस को मुक्तहस्त कर रखा है, वहां ऐसी मौतों का आंकड़ा अधिक है। इसी के मद्देनजर करीब दो साल पहले सर्वोच्च न्यायालय ने प्रवर्तन निदेशालय, राष्ट्रीय जांच एजंसी, केंद्रीय जांच ब्यूरो और देश के सभी पुलिस थानों को छह हफ्ते के भीतर अपने दफ्तरों में सीसीटीवी कैमरे और रिकार्डिंग उपकरण लगाने का आदेश दिया था। मगर पुलिस थानों में इस दिशा में कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं हो पाई है। अब सर्वोच्च न्यायालय ने सख्ती बरतते हुए कहा है कि सभी राज्य और केंद्र शासित प्रदेश की सरकारें अपने यहां के थानों में एक महीने के भीतर सीसीटीवी और रिकार्डिंग उपकरण लगाएं, नहीं तो उनके गृह सचिवों और मुख्य सचिवों के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई की जाएगी। देखना है, इस कड़ाई का कितना असर हो पाता है। कानून के मुताबिक गिरफ्तारी के बाद किसी भी व्यक्ति की मार-पिटाई करना वर्जित है। मगर पुलिस के कामकाज में अभी तक वही औपनिवेशिक ठसक बनी हुई है, इसलिए वह मार-पिटाई को अपना मुख्य हथकंडा मानती है। यही स्थिति प्रवर्तन निदेशालय, राष्ट्रीय जांच एजंसी और केंद्रीय जांच ब्यूरो का है। वे भी तथ्य उगलवाने के नाम पर ऐसी ज्यादतियां करते देखे जाते हैं। मगर पुलिस इस मामले में कुछ अधिक बदनाम है। वह तो रसूखदार लोगों के प्रभाव में कई बार, बेकसूर होने के बावजूद, किसी को सबक सिखाने के मकसद से भी उठा लाती और थाने में बंद कर इस कदर पिटाई करती है कि वह दम तोड़ देता है। ऐसे अनेक उदाहरण मौजूद हैं, जब पुलिस ने किसी को बेवजह मारा-पीटा और उसे मार डाला। इस तरह की यातना झेलने वालों में ज्यादातर गरीब तबके के लोग होते हैं। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय ने थानों में कैमरे लगाने का आदेश दिया था, ताकि जब भी ऐसी शिकायतें आएं तो उन मामलों के तथ्यों को जाना-समझा जा सके। फिर इस तरह पुलिस पर एक मनोवैज्ञानिक दबाव भी रहे। मगर साफ है कि न तो राज्य सरकारें पुलिस के कामकाज का तरीका बदलना चाहती हैं, न पुलिस खुद अपने को बदलना चाहती है। पुलिस सुधार को लेकर अब तक गठित आयोगों और समितियों ने कई मूल्यवान सुझाव दिए हैं, मगर उन पर केंद्र सरकार ने भी कभी गंभीरता से विचार करने की जरूरत नहीं समझी। इसलिए पुलिस मनमानी से बाज नहीं आती। जब भी हिरासत में मौत का मामला उठता है, तो वह किसी न किसी तरह अपने को पाक-साफ साबित कर लेती है। मगर अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग इस पर कई बार चिंता जता चुका है कि भारत में हिरासत में होने वाली मौतों का आंकड़ा चिंताजनक है। ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय की कड़ाई के बाद अगर थानों में कैमरे लगा भी दिए जाते हैं, तो पुलिस के कामकाज में बहुत बदलाव आएगा, इसका दावा करना मुश्किल है। कैमरे लगाने के बाद उनके संचालन और एक केंद्रीय इकाई द्वारा उन पर निगरानी रखने का तंत्र भी विकसित होना चाहिए।