75 साल पहले भारत विदेशी शासन की बेडिय़ों से मुक्त हुआ था। 15 अगस्त 1947 को हमारे स्वतंत्रता संग्राम ने एक खास मंजिल तय की, लेकिन वह आखिरी मुकाम नहीं था। भारत की आजादी की लड़ाई की यही विशेषता थी कि विदेशी राज के खात्मे को कभी अंतिम उद्देश्य नहीं माना गया। बल्कि उसे उन सपनों को साकार करने का माध्यम समझा गया, जो हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने देखे थे। इन सपनों के बनने की लंबी कथा है। इसकी शुरुआत यह समझ बनने से हुई कि अंग्रेजों के शोषण से भारत भूमि के सभी जन-समूह दरिद्र हुए हैं। स्वाभाविक रूप से स्वतंत्रता को देश के आर्थिक दोहन से मुक्ति और सभी जन-समुदायों की खुशहाली के रूप में समझा गया। हजारों लोगों की प्रत्यक्ष सहभागिता ने वह जन-चेतना पैदा की, जो आगे चल कर हमारे लोकतंत्र का आधार बनी। लोकतंत्र की प्रगाढ़ होती आकांक्षाओं के साथ पारंपरिक रूप से शोषित-उत्पीडि़त समूहों को न्याय दिलाने का संकल्प राष्ट्रवाद के आधारभूत मूल्यों में शामिल हुआ। अत: इन जन-समुदायों को तरक्की के विशेष अवसर देने का वादा भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन ने किया। मगर बात यहीं तक सीमित नहीं थी। जब आजादी दूर थी, तभी इस आंदोलन के नेता देश की भावी विकास नीति पर चर्चा कर रहे थे। इस बिंदु पर महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू के मतभेद जग-जाहिर हैं। परंतु रेखांकित करने का पहलू यह है कि प्रगति का एजेंडा स्वतंत्रता संग्राम का अभिन्न अंग बना और जब आजादी आई तो देश ने उस एजेंडे को अपनाया। देश के बंटवारे, सांप्रदायिक उन्माद, बड़े पैमाने पर खून-खराबे और आबादी की अदला-बदली की त्रासदी के बावजूद यह एजेंडा ओझल नहीं हुआ। बल्कि प्रगति के सपने ने तब उस दर्द से उबरने में भारतवासियों की मदद की। आज यह इसलिए याद करने योग्य है, क्योंकि उस सपने के कई हिस्से अधूरे हैं। आज भी करोड़ों देशवासी बुनियादी सुविधाओं एवं गरिमामय जीवन के लिए अनिवार्य अवसरों से वंचित हैं। जब तक ऐसा है, स्वतंत्रता सेनानियों का सपना साकार नहीं होगा। अधिकतम तक नहीं बल्कि सभी तक पहुंचने वाली आजादी का ही ख्वाब हमने देखा था वह लक्ष्य पाना बाकी है। इस पड़ाव पर हम आगे के लिए संकल्प साधें और बढ़े नई मंजिलों की ओर। हम साथ मिलकर चल रहे हैं तो चुनौतियों को हल करने के रास्ते तलाशना भी सीखते जाएंगे। देश की समस्याओं के समाधान भी तलाश ही पाएंगे। दरअसल, आजादी की भौतिकता तक सीमित न रहकर सोच और मन से आजाद होने की जरूरत है। आजादी का मतलब केवल अधिकारों की मांग के नाम पर उग्र प्रदर्शन करना भर नहीं है, बल्कि कर्तव्यों के प्रति भी सकारात्मक भूमिका निभाना है। नेताओं को कोसना ही नहीं है, बल्कि सही और ईमानदार व्यक्ति का सक्रिय मतदाता बनकर चुनाव करना भी है। आजादी की लड़ाई सिर्फ सीमा पर खड़े होकर गोली खाना ही नहीं है, बल्कि अपने स्तर पर छोटे-छोटे बदलाव करना भी है। आइए, इस स्वतंत्रता दिवस पर यह संकल्प लें कि हम इस वतन को घर की तरह मानकर इसके लिए सदैव तत्पर रहेंगे।